गुरुवार, 21 अक्तूबर 2010

राष्ट्र-भाषा(Rastra Bhasha)

खुले आसमान के नीचे ही जीने का अहसास हैं|
निष्कासित सी पड़ी हैं फिर भी विजय की उसको आस हैं|
                   हँसती हैं मुझसे होठो पर मन तो उसका घायल हैं|
                   अपनों से अपमानित होकर आज वो कितनी कायल हैं|
वो बेचारी एक अभागिन, न सर पर कोई साया हैं|
राष्ट्र-भाषा का दर्ज़ा उसका (पर) किसने अपनाया हैं|
                   इंतजार अब उसको केवल की जाएगी विभावरी| 
                   निकलेगा सूरज फिर से (और) वो चमकेगी ज्योतिर्मयी|
अश्रु वेदना सुनने वाला शायद उसका कोई नहीं|
इसीलिये लम्बे अर्से से बिलख-बिलख रोती रही|
                   फिर भी सुन नहीं पाये तुम अपनी माँ की आवाज|
                   कहाँ गया सम्मान तुम्हारा ? कहाँ गया वो नाज?  
सभ्यता अपनी सबसे ऊँची क्यूँ  नहीं तुम्हें इसका आभास?
उड़ा रहे हो तुम जो अपनी मातरी- भाषा का  उपहास!
                   इसे मिले सम्मान की जितना हैं इसका अधिकार|
                   जग में कर पाओगे तुम तब ही अपना विस्तार|
वरना तुम ना बच पाओगे तुम्हारा होगा निश्चय  ह़ास|
कहाँ छुपाओगे खुद को तुम , हंसेगा तुमपे जब इतिहास|