खुले आसमान के नीचे ही जीने का अहसास हैं|
निष्कासित सी पड़ी हैं फिर भी विजय की उसको आस हैं|
हँसती हैं मुझसे होठो पर मन तो उसका घायल हैं|
अपनों से अपमानित होकर आज वो कितनी कायल हैं|
वो बेचारी एक अभागिन, न सर पर कोई साया हैं|
राष्ट्र-भाषा का दर्ज़ा उसका (पर) किसने अपनाया हैं|
इंतजार अब उसको केवल की जाएगी विभावरी|
निकलेगा सूरज फिर से (और) वो चमकेगी ज्योतिर्मयी|
अश्रु वेदना सुनने वाला शायद उसका कोई नहीं|
इसीलिये लम्बे अर्से से बिलख-बिलख रोती रही|
फिर भी सुन नहीं पाये तुम अपनी माँ की आवाज|
कहाँ गया सम्मान तुम्हारा ? कहाँ गया वो नाज?
सभ्यता अपनी सबसे ऊँची क्यूँ नहीं तुम्हें इसका आभास?
उड़ा रहे हो तुम जो अपनी मातरी- भाषा का उपहास!
इसे मिले सम्मान की जितना हैं इसका अधिकार|
जग में कर पाओगे तुम तब ही अपना विस्तार|
वरना तुम ना बच पाओगे तुम्हारा होगा निश्चय ह़ास|
कहाँ छुपाओगे खुद को तुम , हंसेगा तुमपे जब इतिहास|
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